Thursday, December 13, 2007

निर्वात...

निर्वात...
"कहने के लिए
कुछ शेष नहीं रहा
वैसे तो हमारे मध्य
लेकिन
एक बात कहना चाहता हूँ
यदि अन्यथा न लो तुम,
मेरा जीवन के प्रति
अतियथार्थवादी नजरिया
हो सकता है,
तुम्हे प्रिय- अप्रिय लगा हो,
लेकिन,
वास्तव में तुमसे
कुछ कह पाने का साहस
बड़ी मुश्किल से जुटा पाया हूँ
तुम्हारे स्नेह का विस्तार
किसी भी पात्र- अपात्र
व्यक्ति के लिए जीवनपर्यंत की उपलब्धि हो सकता है
परन्तु निर्वात मे
इसकी स्थापना की
तुम्हरी जिद
मेरे लिए सदेव यक्षप्रश्न रही है
अपनत्व/अधिकार की
भाषा मे कहू तो
तुम्हारी सोच संबंधो के
व्यापक अर्थ नहीं तलाश पाई,
और मैं
"अर्थ" को परिभाषित करने का
प्रयास करता रहा
तटस्थता के भाव 'अभाव' मे
अपने ओचित्य पर कई
बड़े सवाल खडे करते है
शायद इन सवालों से हम
युक्तिपुर्वक बचकर
अब नए अर्थ तलाश रहे है
नए संबंधो मे
वंही पुराने अर्थ..."

डॉ. अजीत

3 comments:

नीरज गोस्वामी said...

भाई बेहद खूबसूरत कविता के लिए ढेरों बधाई. आप बहूत ही सुंदर लिखते हैं.शब्द और भाव का व्यापक खजाना है आप के पास. वाह वाह वाह ...
नीरज

'एकलव्य' said...

आपको सूचित करते हुए बड़े हर्ष का अनुभव हो रहा है कि ''लोकतंत्र'' संवाद ब्लॉग 'मंगलवार' ९ जनवरी २०१८ को ब्लॉग जगत के श्रेष्ठ लेखकों की पुरानी रचनाओं के लिंकों का संकलन प्रस्तुत करने जा रहा है। इसका उद्देश्य पूर्णतः निस्वार्थ व नये रचनाकारों का परिचय पुराने रचनाकारों से करवाना ताकि भावी रचनाकारों का मार्गदर्शन हो सके। इस उद्देश्य में आपके सफल योगदान की कामना करता हूँ। इस प्रकार के आयोजन की यह प्रथम कड़ी है ,यह प्रयास आगे भी जारी रहेगा। आप सभी सादर आमंत्रित हैं ! "लोकतंत्र" ब्लॉग आपका हार्दिक स्वागत करता है। आभार "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/

शुभा said...

बहुत खूब !!