Monday, October 4, 2010

आशा

मिलते रहेंगे

यह कह कर बिछडना

थोडा मुश्किल

होता है

उम्मीद को बांधना

उस बेरंग डोर से

जिसका एक-एक धागा

मिलकर जुदा रहता है

न फिर कोई मिलता है

और न मिलने का

मलाल करता है

औपचारिक शब्दों

को शब्दकोश मे

जगह देने वाले को

जी भर कर कोसा जा

सकता है

फोन पर अक्सर

काम आतें है

ऐसे बौनें शब्द

जिसमें भावुक वादों

की कडवी गंध

आती रहती है और

मन बावरा फिर से

आस मे धुनी रमा

लेता है मिलनें की...

पुरानी गली के मुहाने

पर ऐसे फक्कडो

का मेला लगता है साल में

एक बार जब

याद आतें है

पुराने लोग

पुरानी शराब

और पुराने पत्र

दूनिया मशगूल है

अब मिलने-मिलाने

की फिक्र करने वाले को

निठल्ला समझा जा सकता है

या फिर ऐसे लोगो को

समझने वाले

ही कम बचें हैं

उम्मीद करो

और खो जाओं दूनिया के मेले मे

यही सबसे बडा सबक

है परिपक्व होने का

हो सके तो याद कर

लेना...।

डा.अजीत

4 comments:

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

अब मिलने-मिलाने की
फिक्र करने वाले को
निठल्ला समझा जा सकता है

बिलकुल सही फरमाया ...क्यों की आज कल लोंग मिलते ही नहीं ..बहुत बिज़ी हो गए हैं सब ..

ज्योति सिंह said...

chal akela chal .......aajkal poori tarah saarthak hone laga hai ,ek aur geet yaad aa raha hai -yahan kaun hai tera musafir chalte jaana .....
rachna behad sundar hai .

Apanatva said...

ye akelapan sambal nahee ban pata jeevan ka..........isese bahar nikalana jarooree hai.......

संजय भास्‍कर said...

बहुत ही गज़ब की लाजवाब है…………बेहतरीन्।