Tuesday, July 1, 2014

दुःख

सम्बन्धों के आड़े-तिरछे वातायन में
एक धूप विश्वास की खिलती है
सूरज की नन्ही किरण यकीन दिलाती है
इन्सान उतना बुरा नही है
मन के तहखाने में
अनुभव बैठा है संदेह को थामे
अँधियारा कहता है
संदेह करो विश्वास नही
संदेह और विश्वास की लड़ाई में
कभी मन जीत जाता है
तो कभी दिमाग
उलझे-सुलझे अधूरे लटके-भटकें
कुछ रिश्तों का बोझ
मन घसीट रहा है बरसों से
चेहरों पर मुस्कान पुती है
मन पर घृणा का काजल
मित्र-अमित्र के भेद में
परिभाषाएं जाती है रोज बदल
कुछ लोगो के लिए सुविधा है
नजदीक या दूर होना
प्रिय या अप्रिय होना
मुश्किल है इंसान के लिए
पारदर्शी होना
भय बड़ा है दिगम्बर हो जाने का
रिश्तों के खो जाने का
इसलिए अकेलापन नैसर्गिक है
रचना अपना रिश्तों का संसार
एक जिद है मनुष्य की
खुद से भागने की एक असफल कोशिस
तभी वो अभिशप्त है
सम्बन्धों की त्रासदी ढोने के लिए
दोषारोपण करके बचने के लिए
मनुष्य होने का सबसे बड़ा स्थाई दुःख यही है।

© डॉ. अजीत

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