Friday, July 11, 2014

पोस्टकार्ड

दुखों के पोस्टकार्ड पर
शिकवों के रसीदी टिकट
गलतफहमियों की गोंद से चिपके थे
इसलिए वो गुमनाम पतों से
बैरंग लौट आए
उन पर आमद की मुहर
नही लगी थी
न डाकिए की खीझ का
लाल कलम उन पर चला था
उनकी लिखावट वक्त के डाकिए
की समझ से परे थी
इसलिए वो हर बार अलग अलग
जगह भेजे जाते रहें
अपने कयासो के साथ
दुःख का पोस्टकार्ड
सुख के मनीआर्डर के साथ
भेजना पड़ता है
तब शायद पते तक पहूँच पाता
यह सलाह उस दुश्मन डाकिए ने दी
जिसे दोस्त समझ
मैंने अपनी सारी चिट्ठीयां सौप दी थी
गुमनाम खतो के भय से
कुछ खत बिना लिखे रह गए है
सोच रहा हूँ उन्हें
रोज तुम्हें पोस्ट करूं
कविता की शक्ल में
मगर
न जाने तुम कहाँ रहती है
तुम्हारा पुराना पता मुझे मालूम नही है
नया मिलने की उम्मीद नही है
किसी जतन से
यहीं पढ़ सको तो
पढ़ लेना।
© डॉ.अजीत

1 comment:

सुशील कुमार जोशी said...

हमेशा की तरह उम्दा रचना ।