Monday, September 1, 2014

समय

वक्त पर भारी कुछ दिमागी फितूर
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चौबीस घंटे में
सबसे मुश्किल वक्त होता है
शाम का
इधर सूरज डूबता है
उधर मै लेटता हूँ
खुद की कब्र में
सूरज को नही पता
रोज मुझे मारता है
रोज जिन्दा करता है
सूरज से मै इसलिए भी
खफा नही हो सकता
शाम उसका नही
समय का दोष है
शाम की रूमानियत का एक पहलू यह भी है
जान लीजिए आप।

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दिन और रात
जैसे
दो शख्स है मेरे अंदर
एक साधु
एक सांसारिक
इन दोनों के बीच
मेरी साधना
इन्सान बने रहने की है
इसे कम बड़ी साधना न समझें
शायद ही मृत्यु तक
मै सिद्ध हो पाऊं।

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सुबह देर से बिस्तर से
उठना अवसाद की एक
निशानी है
ऐसे दुनिया के तमाम
मनोवैज्ञानिक कहते है
मैं कहता हूँ
यह एक गुप्त तैयारी भर है
कुछ सम्वेदनशील लोगो की
जिन्हें  रोज लड़ना होता है
एक युद्ध
अंदर -बाहर से।
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दिन में सो सकते है
अति सुखी या अति दुखी जीव
इनके मध्य के
लिखते है
दोपहर में कविता
जिसे पढ़ शाम
अक्सर उदास
हो जाया करती है।
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समय मनुष्य का बनाया
एक हसीन धोखा है
यह अच्छा या बुरा नही होता
यह क्रुर भी नही होता
समय होता भी है
यह कहना अभी संदिग्ध होगा
दरअसल
दिन रात सुबह दोपहर  शाम इन सबकी
वैज्ञानिक वजह है
परन्तु समय को न देख पाने की वजह
वैज्ञानिक नही
मन की है
आध्यात्मिक या मनोवैज्ञानिक तो
बिलकुल नही।
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समय बदलने की सांत्वना
मनुष्य की लोकप्रिय युक्ति है
शुभचिंतक बनने की
भला वक्त भी कभी
मनुष्य जैसे मामूली जीव के लिए
बदलता है
हम जरुर बदल जाते है
समय के हिसाब से
मनुष्य को मजबूर या विजेता देखना
समय का पुराना शौक रहा है।
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समय उन षड्यंत्रो का
हिस्सा बना दिया जाता है
जिसे रचते है नियति और प्रारब्ध मिलकर
समय को खुद पता नही होता है कि
उसका प्रयोग कर लिया गया है
वो तो बेचारा काल गणना के अहंकार में
खुद को हमेशा शिखर पर
देखने का आदी होता है
इसलिए नही कहना चाहिए
अपना समय खराब है।

© अजीत

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