Sunday, October 12, 2014

रफ्ता रफ्ता

रफ़्ता रफ़्ता
तुम्हारी समझाईश की चासनी में
अल्फाज़ कुछ तरह से लिपटे कि
उनका पेंचो खम जाता रहा
तुमसे हर मुलाक़ात के बाद
मै उधड़ता चला गया
और तुम बुनती चली गए
ख्वाबों के बिन नाप के स्वेटर
चाय की केतली को खोलते हुए
जमी बूंदों को देख
याद आ जाते थे तुम्हारें आंसू
फकीरों की जटा सा
उलझा हुआ था मै
तुम पानी सी तरल थी तब
बेवक्त पर यूं बेसबब मिलना
वक्त की साजिशों का हिस्सा लगता है कभी कभी
या फिर खुदा की कोई समझदारी
कतरा कतरा पिघलते हुए
रोज नई शक्ल इख्तियार कर लेता था वजूद
तुम्हारी जुस्तजु के खत
मुझ तक पहूंच जाते थे देर सबेर
तन्हाई का चिमटा बजाते
कई दफे तुम्हारे दर तक आया
मगर तुम उन दिनों
इबादत का हुनर सीख रही थी
तुम्हें तो इस बात का इल्म भी नही होगा कि
तुम्हारी साँसों की गिरह खोलता बांधता
मै गिनती भूल गया हूँ
मुमकिन है किसी मोड़ पर
तुमसे मुलाक़ात हो
मगर बात होगी इसकी उम्मीद कम है
दरअसल
तुम्हारी पीठ पर एक बरगद उग आया है
जिसकी छाँव मेरी खिड़की पर उतरती है
तुम्हारी यादों से झुलसते हुए
वहीं सुस्ता लेता हूँ अक्सर
हकीकत की सबसे स्याह बात यही है
इसने हमारी रोशनी बदल दी है
अब हम एक दुसरे की
फिक्रों बजाए जिक्रों में शामिल है
चलो फर्ज़ कर लेते है
इन बिखरे हुए रिश्तों के सहारे
जीना मुश्किल है
और इस मुश्किल दौर में
तुम्हे उलझा हुआ नही देखना चाहता
मेरी तरफ ताउम्र पीठ ही रखना
तुम्हारा चेहरा तुम्हारे अक्स में देखने का
मै हुनर रखता हूँ
बस दुआ करों
हम जब भी मिलें
रोशनी में मिलें
अंधेरों को बचा कर रखना पड़ेगा
तन्हाई में खुद से गुफ़्तगू के लिए
बेशक!

© डॉ.अजीत