Tuesday, October 21, 2014

गुनाह

खुद की गहराई से घबरा जाता हूँ
कभी हलकी बातें भी कर जाता हूँ

दवा का असर कम यूं भी होता है
उससे आधा मर्ज़ छिपा जाता हूँ

नजरों के धोखे ही खाएं अभी तक
आदतन चश्मा लगाकर सो जाता हूँ

ये रोज़ के तमाशे ये रोज़ का मज़मा
कभी  रंगे हाथ भी पकड़ा जाता हूँ

उनका शक का कारोबार यूं ही चले
दानिश्ता गुनाह करते चला जाता हूँ

© डॉ.अजीत

1 comment:

सुशील कुमार जोशी said...

दीपावली शुभ हो । सुंदर रचना ।