Wednesday, December 3, 2014

यक्ष प्रश्न

हम उनकी गोद से
परित्यक्त प्रेमी थे
न हमें उनकी
उंगलियों की कंघी नसीब हुई थी
और न धूप में आंचल
हमारी पवित्र भावनाएं
झूठ और षडयंत्रो का पुलिंदा साबित हुई
हमारे होठ लगभग सिले हुए थे
उन पर शिकायतों की झूठी मुस्कान थी
बेहद सच्ची दिल की बातों को
अन्यथा लिए जानें के लिए शापित थे हम
तपते दुखते माथे को कभी
नसीब नही हुए उनकी जुल्फ के साए
हम प्रेमी थे भी या नही
इस पर सबको सन्देह था
शंका संदेह की कमान पर कसा रहा प्रेम
और घायल होते रहे हम
हमारी हथेलियों पर नीरसता का सीमेंट पुता था
हाथ मिलाते वक्त बेहद बोझिल होते थे हम
गले लगने से पहले
हीनता का जंगल हमारी छाती पर उग जाता था
तमाम विडम्बनाओं के मध्य
प्रेम को जीवित रखने के लिए
देते रहें हम खुद की बलि
इस उम्मीद पर कि
प्रेम बदल देता है इंसान को
किसको कितना बदला
मुश्किल है बता पाना
एक चीज़ जरूर बदल गई
अब कुछ बातों का बुरा लगने लगा था
हमारे आसपास उग आया था अब
विविधता भरा शुष्क जंगल
जहां प्रेम को तलाशना
खुद को खोने के जैसा था
अपनी गुमशुदगी को दर्ज कराना
अब अनिवार्य नही था
क्योंकि
दिल और दिमाग से निर्वासन जीते हुए हम
भूल गए थे
खुद की ठीक ठीक पहचान
हम परित्यक्त प्रेमी जी रहे थे
अपनेपन के बीच
शूद्रों से भी बदतर जीवन
प्रेम निसन्देह नई सामाजिक असमानता का जन्मदाता था
कोई आरक्षण जिसे खत्म नही कर सकता
एक ऐसी असमानता का हिस्सा थे हम
सम्बन्धों के समाजशास्त्र का सबसे
खतरनाक पक्ष यही था
सतत साथ चलते जाना अजनबीपन के साथ
और पहुँचना कहीं भी नही
हम कुछ प्रेमी इसे जीने ढोने के लिए
प्रकृति द्वारा सबसे उपयुक्त पाएं गए
ये बात हमारा दिल दुखाती रहेगी उम्र भर
न्याय अन्याय से परे
हम इस युग का नया सामाजिक सच बनें थे
समझ नही आता था
इस पर गर्व किया जाए या कोसा जाए खुद को
एकांत के सन्नाटे में
ये हमारे दौर का सबसे बड़ा यक्ष प्रश्न था।

© डॉ. अजीत

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