Thursday, February 26, 2015

देर सबेर

अभी तुमसे जुदा हुए
एक हफ्ता भी नही हुआ था
तमाम बेरुखी के तुम्हारे ब्रह्म वाक्य
हवा में उड़ गए
जी इतना मतलबी हुआ
तुम्हारा लानत  में भी
मुहब्बत तलाशने लगा
ईगो को भरी सर्दी में गलना
देख रहा था
और कोई अफ़सोस नही था
बिछड़ते वक्त जितनी ठसक से
कहा था अलविदा
उतनी ही कसक से
तुमसे बात करने का
बहाना तलाश रहा था मन
बड़ी शिद्दत से याद आने लगे थे
तुम्हारे स्पर्श
हफ्ते भर में मेरे आत्मविश्वास और
दार्शनिकता ने हाथ खड़े कर दिए
और मै ढीठता से
तुम्हारे दर पर खड़ा था
जैसे चाय की पत्ती मांगने आया हो पड़ौसी
अच्छा हुआ तुमने
नही खोला दरवाज़ा
मुझे यूं देखकर
रही सही मुहब्बत भी खत्म हो जाती
इन्तजार की नदी किनारे
चाय पीते अभी यही सोच रहा हूँ
तुम कभी मिली तो
बात क्या करूँगा
मेरा ऐसा सोचना गलत नही है
देर से हुई मुलाक़ात में
विषय बोझिल हो जाते है
मसलन तुम यही पूछ बैठो
कैसे हो तुम !
और मेरे पास इसका कोई
सच्चा जवाब न हो।

© डॉ. अजीत



Tuesday, February 24, 2015

मुलाक़ात

सुनों! अदिति
तुम्हारा एक हिस्सा
तुम्हारी मां के मन के गर्भनाल से
अभी तक जुड़ा हुआ है
तुम कभी आई भी नही
और तुममें जन्म भी ले लिया
भोर के स्वप्न की शक्ल में
वो स्वप्न मैनें सुना था
बेहद लापरवाही के साथ
मगर
एक दिन पाया
तुम जीवन्त हो
हमारे मध्य
चेतना के शास्वत पुंज के रूप में
जैसे नदी और पत्थर के बीच रेत
तुमनें बांध दिया
नेह का अटूट बन्धन
हमारे बीच
कुछ सांझे ख़्वाबों की बुनियाद
तुम्हारे नन्हें हाथों ने रखी थी
उन्हें जीने की कोशिस में
तुम अक्सर याद आती हो
रोजमर्रा की भागदौड़ में
जब बहुत कुछ छूटता जाता है
कपाल पर पुता होता है तनाव
तब तुम ठंडी ब्यार सी आती हो
और बढ़ने लगता है सब पूर्णता की ओर
हमारे मध्य
तुम्हारा होना
एक आश्वस्ति है
सपनों के जिंदा होने की
तुम्हारी एक मुक्कमल शक्ल है मेरे पास
और हमारे ख़्वाब का
एक तावीज़ तुम्हारे गलें में बाँध दिया है
ताकि तुम्हें अपेक्षाओं की नजर न लगे
फिलहाल
इतना काफी है
हमारे लिए
ये बात तुम सुन सको
इसके लिए
शब्दों को उड़ा रहा हूँ
मौन को बुला रहा हूँ
तुमसे अगली मुलाकात
वहीं पर होगी।

© डॉ.अजीत





दुर्भाग्य

एक अनपढ़ आदमी
नही समझता
विकास का मूल्य
ऐसा कहते है
अर्थ और नीति के जानकार
वो धरती को
मां समझता है
और अपने पुरखों की निशानी
ये उसकी बड़ी मूर्खता है
जमीन पर नही
उसका कोई हक
रिश्तों और स्वामित्व के लिहाज़ से
दरअसल
वो जी रहा है
सरकार की कृपा पर
एक गैर कानूनन जिंदगी
विकास का एक ही मतलब है
किसी किस्म की बेदखली पर
उफ़ तक न करें
जीडीपी में यह उसका अधिकतम
योगदान हो सकता है
कुछ चालाक लोग
शहर से भाग जाना चाहते गाँव
मिट्टी में बीज नही
बोना चाहते है
सीमेंट और बजरी
ताकि खड़ा किया जा सके
कंक्रीट का जंगल
विकास की कोख बाँझ है
उसके पास नही है
अनपढ़ किसान को देने के लिए
दो वक्त की नून तेल रोटी
उसके पास है मुआवज़ा
सपनें की शक्ल में
जो किसान की पीठ पर
निर्वासन की मोहर लगा
उसे निर्यात करता है
मजदूरी के लिए
देर सबेर सरकार
हासिल कर ही लेगी जमीन
इसमें सन्देह नही है
सन्देह इस बात का है
अपनी मिट्टी से कटकर
वो दो दिन अमीर दिख सकता है
मगर जी नही सकता
बतौर इंसान
यह उसकी सबसे बड़ी कमजोरी है
जिसे साहेब नही समझते
ये कृषि प्रधान देश का
सबसे बड़ा दुर्भाग्य है।

© डॉ. अजीत

Monday, February 23, 2015

पिता

पौरुष के तमाम
पौराणिक अभिमान के बीच
यह मेरी सबसे बडी ज्ञात हीनता है कि
एक बेटी का पिता नही हूं मैं
बेटी का पिता होने का अर्थ है
दरख्त का घना होना
चिडियाओं की भाषा पता होना
खुशियों की घर में दस्तक होना
जटिल से सरल होना
यदि विज्ञान इसकी आश्वस्ति देता हो तो
निसन्देह एक बेटी का पिता होना चाहता हूं मैं
ताकि घर मे बची रहे कविता
उत्सवों मे रौनक
और घर के बेटों में तहजीब
अजन्मी बेटी की कल्पना भर
भर देती है अंतस का रिक्त आकाश
जगाती है उम्मीद कि
दुनिया उतनी भी बुरी नही है
यहां लडा जा सकता है कुछ दिन और
बात बेटा और बेटी मे भेद की नही है
दरअसल
घर में बेटी का होना
उस अहसास का होना है
जिसके जरिए
एक बेहतर इंसान बनने के बारें मे
सोचा जा सकता है
मनुष्य के अन्दर बची रही मनुष्यता
इसके लिए बेहद जरुरी है
एक बेटी का पिता होना
साल भर घर मे पसरें
पुरुषोचित व्यवहार
और नीरस होते त्योहार में
अक्सर सोचता हूं
कितना अभागा है
पिता होते हुए भी
एक बेटी का पिता न होना
यह ऐसी ज्ञात निर्धनता है
जो और गरीब करती जाती है
मुझे हर साल।


© डॉ.अजीत

पतझड़

आठ कतरन: वाया पतझड़
---------------------------
स्थगित करता हूँ
तुम्हें पाना
कुछ काम
अगले जन्म के लिए
छोड़ता आया हूँ
अभी काट लेता हूँ
पिछले जन्म के
प्रारब्ध
तुमसे दूरी के शक्ल में।
***
ब्रह्माण्ड था मैं
तुम आकाशगंगा
इसलिए
नही देख पाए
एक दुसरे को
बाकि तो सब
अनुमान है
सबके अपनें अपनें।
***
मेरा पता
ठीक तुम्हारे कान के पीछे लिखा था
जिसे पढ़ने के लिए
रोशनी नही
स्पर्शों का लिपिबोध जरूरी था
अफ़सोस
तुम्हारे हाथ में कलम थी
इसलिए तुम्हारे खत मुझ तक पहूँचे
तुम नही।
***
तुम्हारे कोहनी पर
मैंने एक शिकायत लिख छोड़ी है
ताकि देख न पाओं
मेरा बचपना
मेरे अंदर इतनी ही
होशियारी शेष थी।
***
तुम्हारी अनामिका से
गहरी दोस्ती थी मेरी
हाथ मिलाते वक्त
दोनों को खुशी मिलती थी
तुम्हारे बाद
नमस्ते करने लगा हूँ सबसे
हाथ जोड़कर
शिष्टाचार का
एक क्रूर पक्ष यह भी था।
***
तुम्हारे काजल के डिब्बी के नीचे
एक जवाब लिखा था मैंने
तुम उसे कभी नही
पढ़ सकोगी
क्योंकि बेकार की चीज़ो में
तुम्हारी दिलचस्पी नही रहती
जवाब बेकार नही था
बस डिब्बी बेहद मामूली थी
तुमने फेंक दी होगी कब की
निर्वासन के लिए
सही चुनी मैनें।
***
चलो ! खुश रहो
अपनी बनाई दुनिया में
ऐसी सलाह तो दी जा सकती है
अक्सर सभी देते है
मगर
कोई खुश है या नही
ये देखने कोई नही जाता
इसलिए मुझे दुःख का
भाईचारा पसन्द है।
***
कभी चाहा था
तुम्हें ओक में भरके देखना
फिर चाहा
आचमन के जल सा चखना
अब चाहता हूँ
कपूर की तरह कैद करना
चाहतों का एक ही मतलब है
तुम्हें लगातार खोना
आज से बंद करता हूँ
तुम्हें चाहना।

© डॉ. अजीत


Sunday, February 22, 2015

उम्र

हमारी उम्र में सीधें सीधे
आठ साल का चक्रव्यूह सा
अंतराल रहा होगा
कौन छोटा कौन बड़ा
यह कहना मुश्किल था
जिंदगी के मध्यांतर पर पहूंच
निर्णय लिया जा सकता था
इस बात का
मगर
तब तक धैर्य ने जवाब दे दिया
अहसासों की जगह वक्त ने ले ली
समय का बोध
बुद्धि की नियोजित चाल थी
संतुष्टि और असंतुष्टि का मिला जुला मन
उस वक्त की सबसे बड़ी चालाकी
कही जा सकती है
जिसे देख
हंसा जा सकता था भीड़ में
रोया जा सकता था एकांत में
रोने और हंसने के बीच
उम्र बीत रही थी आहिस्ता आहिस्ता
मगर वक्त ठहरा हुआ था
उस इन्तजार में
जब हमें जन्म लेना था
एक ही दिन
समान घड़ी और समान नक्षत्र में
इस ब्रह्मांडीय घटना का
घटित होना
चमत्कार से कम न था
किसी अभागे पुरुष की तरह
चमत्कार का इन्तजार करना
सबसे बोझिल काम था
इन्तजार दार्शनिक शून्य से भरा होता है
पुरुषार्थ पर प्रश्नचिन्ह के साथ
ये तभी ज्ञात हुआ
जब उम्र घट रही थी
और वक्त बढ़ रहा था
और हम तुम ठहरे हुए थे
अपनी अपनी
मान्यताओं के घने जंगल में
एकदम अकेले।

© डॉ. अजीत





Tuesday, February 17, 2015

लाचारी

सात लाचारियां...
----------------

गरीब आदमी
बनाते है सरकार
अमीर बनाते है
प्रधानमन्त्री।
***
वो बो देता है
भूख
और उगाता है अन्न
मरता है जिल्लत से
नही मांगता मगर
राहत पैकेज
वो किसान है
सफल उद्यमी नही।
***
डर जाता है
एक नोटिस से
जोड़ता है साहब के आगे हाथ
नही सीख पाया
व्यवस्था में
सेंधमारी
चोरी को समझता है पाप
देश का राजस्व
उसी के सहारे है।
***
देश का प्रधानमंत्री
एक चायवाला है
एक प्रदेश का मुख्यमन्त्री
पूर्व ईमानदार अफसर
अफसर साहित्यकार उद्यमी पूर्व नौकरशाह
कहीं कहीं राज्यपाल भी है
सबका हिस्सा तय है
व्यवस्था में
मजदूर ढोता है बोझ
किसान ढोता है कर्जा
दोनों हाशिए पर है
मेरा देश कृषि प्रधान है
इस पर ग्लानि है मुझे।
***
सुना है अब
खेती बाड़ी की आमदनी पर
लगेगा टैक्स
कुछ नौकरीपेशा कुछ उद्यमी लोगों को
इस बात पर था सख़्त ऐतराज़ कि
वो टैक्स भरें
और किसान मुक्त रहे
अब किसानों को भरना होगा
आईटीआर
गाँव में लगेंगे पेन कार्ड बनाने के शिविर
देश का विकास
अब किसानों की जेब से होगा
जिन्हें सिस्टम कुतर रहा है रोज़।
***
किसान का बेटा बनता है
डॉक्टर
इंजीनियर
अफसर
टीचर
नही बनना चाहता
किसान
वजह इक्कीस वीं सदी के
विकास मॉडल में तलाशिए
पूछिए नियति नियंताओं से
मुझसे क्या पूछते हो
मैं तो खुद बन गया हूँ
एक छद्म कवि।
***
देशभक्ति अनिवार्य थी
शिक्षा स्वास्थ्य परिवहन
और सामाजिक न्याय
बुनियादी जरूरतें थी
जब भी इन पर खड़ा करता सवाल
जवाब देने की बजाय
वो मुझे घोषित कर देते
राष्ट्रविरोधी
अपने ही देश में
राष्ट्रभक्ति और निष्ठा का एक ही प्रमाण था
चुप रहना।
***

© डॉ. अजीत

आरोप

उसका यह मुझ पर
बड़े शास्वत किस्म का
आरोप था
'तुम अस्थिर मन के हो'
इसलिए भी
तुमसे प्रेम किया जाना
असम्भव है
प्रेम की अनिवार्य शर्त थी
मन की स्थिरता
जहां शर्त हो क्या वहां प्रेम बचा रहेगा
मैं यह सोचता था
अपने अस्थिर मन से
स्थिर और अस्थिर से अधिक
महत्वपूर्ण हो जाता है
एक कदम का बढ़ाना
प्रेम में सोच विचार करना
बुद्धिमान होने के लक्षण है
परन्तु
प्रेम मांगता है
दीवानापन
इसलिए प्रेम में शर्तें
प्रेम का रास्ता बाधित करती है
अचानक सोचता हूँ
यदि इस किस्म की बाधाएं न होती
तो आज हर दूसरा व्यक्ति
प्रेमी न होता
प्रेम की दुलर्भता को
बचाती है ये कुछ शर्तें
अपने तरीके से
इसलिए उसके आरोप को
प्रेम की तरह
शास्वत लिखा मैनें।

© डॉ. अजीत

Monday, February 16, 2015

प्रेम पथ

एक व्यक्ति प्रेम लिखता है
एक व्यक्ति प्रेम करता है
एक व्यक्ति प्रेम में जीता है
तीनों व्यक्ति आपस में
कभी नही मिलते
प्रेम रूपांतरित करता है
तीनों को अलग अलग ढंग से
प्रेम करता व्यक्ति
नही लिखता प्रेम पर एक भी शब्द
उसे इतनी फुरसत कहां कि
ख्यालों को शब्दों का आकार दे
वो मंद मंद मुस्कुराता है
प्रेम कविताएँ पढ़कर
विस्मय से भरता है
लिखने वाले की नादानी पर
प्रेम में जीता व्यक्ति
प्रायः आध्यात्मिक लगता है
समझ नही आता है
उसकी भक्ति शक्ति और प्रेम का अंतर
इन तीनों में सबसे
निर्धन वो व्यक्ति है
जो लिखता है प्रेम
प्रेम कविताओं और कहानियों की शक्ल में
वो शापित है
प्रेम का उधार अपने कंधें पर ढ़ोने के लिए
जिन कविताओं के
बिम्ब प्रतीक और रूपकों को पढ़
हम लगाते है उसका रूमानी होनें का अनुमान
वो दरअसल होता है
शिल्प और सम्वेदना का गढ़ा हुआ
एक कोरा अनुमानित झूठ
वो अन्तस् से हो सकता है
बेहद कठोर और शुष्क
प्रेम करना
प्रेम में जीना
प्रेम लिखने से हमेशा बड़ा काम है
इसलिए साहसी लोग बन पाते है प्रेमी
और अपेक्षाकृत छलिया और कायर
बन जाते है प्रेम के लिखनें वाले
जिनके वाग विलास में
प्रेम खेलता जरूर है
मगर हार या जीत का सुख
हमेशा आता है उन्हीं के हिस्से
जो करते है प्रेम या
जो जीते है प्रेम
प्रेम कविताओं की रुमानियत
गल्प का ही एक विस्तार है
जिन्हें पढ़कर हम
चमत्कृत हो सकतें
जिनके पास है प्रेम की वास्तविक अनुभूतियाँ
वो कवि या लेखक नही है
वो पाठक हो सकते है
गुमनाम से
जो लिख रहे है प्रेम
वो दुनिया के सबसे अभागे शख्स है
जिनके हिस्से जब प्रेम नही आया
तब वो लिख कर बताने लगे
प्रेम की दिव्यता
कल्पना सच से ज्यादा खतरनाक और जीवन्त होती है
इसकी पुष्टी करता है मनोविज्ञान
तभी तो जानकार लोग
प्रेम कविताओं को पढ़ मुस्कुरा देते है
प्रेम कर रहे लोग
प्रेम में जीते लोग
नही पढ़ पाते प्रेम के आख्यान
उन्हें जरूरत भी नही इनकी
प्रेम को लिखने वाले
और प्रेम को पढ़ने वाले
सम्भवतः दुनिया के सबसे रिक्त लोग है
जो भरते है रोज़ खुद को
प्रेम के सहारे
प्रेम रहस्यमयी होने के साथ साथ
होता है उदार
जो सबको देता ही है
कुछ न कुछ
चाहे वो
प्रेम लिखने वाले हो
प्रेम करने वाले हो या
प्रेम को जीने वाले हो
प्रेम को समझना आसान है
प्रेम को जीना थोड़ा मुश्किल
प्रेम को लिखना चालाकी से भरा
ताकि पढ़ने वाला यह
भेद न कर सकें कि
आप प्रेमी है या
प्रेम को लिखने वाले
एक खाली मजदूर।

© डॉ. अजीत

Friday, February 13, 2015

आशीर्वाद

बत्तीस-तैंतीस साल की उम्र में
जब एक ठीक ठाक सामाजिक परिचय होना चाहिए
पर्स में रखा विजिटिंग कार्ड का वजन
आपके वजन को कुछ पौंड बढ़ाता हुआ हो
घर के बाहर टंगी हो
नाम और पद की एक कलात्मक तख्ती
जिसके सहारे
परिजनों के सामूहिक गौरव का
विषय भी होना हो आपको
ठीक उस वक्त यदि आप
प्रेम की खोज में निकल आते है
लगभग दस साल आगे
तो आपको
बुद्ध समझे जाने की शून्य सम्भावना है
इस यात्रा को हद दर्जे की
आसामान्य जिद करार दिया जा सकता है
उम्र के लिहाज़ से प्रत्येक दशक की होती है
अपनी सीमाएं अपने अभिमान
खुद से लगभग दस साल बड़ी प्रेमिका के साथ
प्रेम करना
विचित्र नही गरिमापूर्ण है
दर्शन कहता है ऐसा
इसके जोखिम और मांग एकदम अलग किस्म की होती है
दरअसल उम्र एक मनोवैज्ञानिक भरम है
जो तय करता है हमारे दायरें
दायरों से बाहर का प्रेम
मांगता है किस्म किस्म के प्रतिदान
मसलन आपकी प्रेमिका आपसे मांग सकती है
प्रेम पर एक शोधपरक वैधानिक स्पष्टीकरण
या फिर पूछ सकती है अपने हमउम्र लोगों में दिलचस्पी न होने की वजह
सवाल आपके पुरुषार्थ से लेकर जीन्स की आनुवांशिकी तक पर भी उठ सकता है
सलाह यह मिल सकती है कि
तुम्हें मिलना चाहिए किसी मनोवैज्ञानिक से
यथाशीघ्र
यदि इन सबके बावजूद
बचा लेते हो अपना प्रेम
नही खोते सबंधो की न्यूनतम गरिमा
आहत हृदय को समझाना नही पड़ता हो
दूर क्षितिज़ की तरह देख सको मन का डूबना और निकलना
साँसों के स्पंदन में  पिरो सको उसका नाम
बिना नजर के चश्में की मदद से
तब कहा जा सकता है
तुम प्रेम में हो गए हो सिद्ध
यह बात देर सबेर उसको भी समझ आनी ही है
इसलिए इन्तजार करों
होकर समाधिस्थ
ये वेलेंटाइन डे तो आता है हर साल
इस पर दे सकते हो
आशीर्वाद दो नव युगलों को
प्रेम के अभिनव विस्तार का
जिसकी सिद्ध पात्रता रखते हो तुम।

© डॉ. अजीत

Thursday, February 12, 2015

पाठशाला

अनुराग आसक्ति या
प्रेम में
सतत गुणवत्ता को बनाए रखने के
समस्त औपचारिक दबाव मुझ पर थे
तुम चुन सकती थी
अपनी सुविधा से
मैत्री और प्रेम की कर्क रेखा
वक्त के नाजुक टुकड़े से
खेलती तुम
आसानी से आ जा सकती थी
इस पार या उस पार
सब कुछ इतना अनिश्चित था
तय नही कर पा रहा था
तुमसें प्रेम करूँ
या तुम्हारा विश्लेषण
अस्त व्यस्त जिंदगी के हाशिए पर
तुम्हारे हस्ताक्षर पढ़ता
और उसे अंतिम वसीयत समझ लेता
फिर अचानक तुम
ऐसी मद्धम चोट करती
कौतुहल की शक्ल में
मुझे खुद पर सन्देह होने लगता
एक बेहद गैरसांसारिक रिश्तें में
बहुत कुछ मायावी भी था
हमारी बातों में दर्शन के सूक्त
मनोविज्ञान की सच्चाई
और देह का भूगोल शामिल था
परन्तु किसी उपग्रह की तरह
मेरी परिधि में तुम्हारे
चक्कर काटने की कक्षा निर्धारित नही थी
तुम आ जाती कभी बेहद नजदीक
तो चली जाती कभी बेहद दूर
हमारे मन संकेत की लिपि को
पढ़ने में थे बेहद असमर्थ
हर बार बहुत कुछ कहे गए के बीच बचता रहा
बहुत कुछ अनकहा
दरअसल
हमारे बीच जो भी अमूर्त था
उसको समझनें के लिए
समय से ज्यादा खुद की जरूरत थी
मैं खुद के शत प्रतिशत होने के प्रमाण दे सकता था
तुम्हारे विषय में कुछ कहना मुश्किल था मेरे लिए
क्योंकि
तुम्हारे पास एक ऐसा अधूरा पैमाना था
जो रोज मेरा कद घटा-बढ़ा देता था
इसलिए मेरी नाप की हर चीज
छोटी बड़ी होती रही
प्रेम भी उनमें से एक चीज़ थी
यह तय है एक दिन तुम शायद
समझ जाओगी सब ठीक ठीक
नही होंगे पूर्वाग्रह के बादल
संशय की बारिश और
अपराधबोध के पतनालें
मगर तब तक
बचा रहूंगा मै इसी शक्ल में
यह बिलकुल तय नही है
प्रेम आसक्ति या अनुराग का यह
सबसे त्रासद पक्ष है
जो जान पाया
तुम्हारी मैत्री की पाठशाला में।
© डॉ. अजीत





Sunday, February 8, 2015

टूटे स्वर: वक्त के वाद्य यंत्र के

तुम्हारा मिलना
अस्तित्व का नियोजन था
तुम्हारा बिछड़ना
मानवीय त्रुटि
अधूरापन ईश्वर की युक्ति है
जिसके सहारे रचा जाता है
प्रार्थना का सतही खेल।
***
प्रेम में आहत मन का
पुनर्वास
मन के वैज्ञानिक नही कर सकते
कोई सांत्वना असर नही रखती
प्रेम की चोट पर
प्रेम ही लगा सकता है मरहम
मगर जख़्म बचा रहता है
किन्तु परन्तु शक्ल में
हंसते हुए चेहरों का
एक सच यह भी है।
***
तुम्हारे लिए उपलब्ध
विकल्पों में
शायद एक सबसे बेहतर विकल्प था मैं
मगर मेरे लिए तुम
विकल्प नही संकल्प थी
विकल्प और संकल्प के
मध्यांतर पर
तुम लौट आई स्वेच्छा से
अब मेरे पास
ना कोई विकल्प था ना संकल्प
यह एक बड़ी अज्ञात निर्धनता थी मेरी।
***
बहरहाल
तुमनें रच ली अपनी
समानांतर दुनिया
हवा,धरती,आकाश, चाँद,सूरज और सितारें
इस दुनिया का
एक संक्षिप्त हिस्सा था मै
जो मिटता गया
कच्ची पेंसिल की लिखावट सा
सबसे जोखिम भरा था
ऐसे चित्रकार से प्रेम करना
जिसका अनुराग अस्थाई था।
***
जिस वक्त
तलाश रहा था मैं
प्रेम
उस वक्त तुम
प्रेम की उपकल्पना का परीक्षण कर
सिद्ध कर चुकी थी
अपना प्रयोग
मेरी तलाश में तुम्हारा होना
एक संयोग था
और तुम्हारे प्रयोग में मेरा होना
एक चयन
सबकुछ विज्ञानसम्मत था
प्रेम को छोड़कर।
***
तमाम त्रासद
असहमतियों के बावजूद
प्रेम दशमलव में बचता रहा
इस बात पर गर्व किया जा सकता है
हमारे प्रेम में सब कुछ लौकिक था
बस प्रत्यारोप नही थे
इसी वजह से
आज शर्मिंदा नही है हम।
***
सम्भव है आज से
ठीक दस साल बाद
तुम्हें मेरी बातें
असामान्य न लगें
समय रचता है
कालबोध के साथ भ्रम भी
जो टूटता है
एक अप्रासंगिक
संधिकाल पर
बिना आवाज़ के साथ।

© डॉ. अजीत 

Saturday, February 7, 2015

उन दिनों

उन दिनों : जब बहुत समझदार थी तुम
--------------------------------------

उन दिनों जब
तुमसे बातचीत बंद थी
तुम्हें भूलने ही वाला था जब
अचानक
तुम्हारा एक पुराना खत
सामने आया
जिस पर लिखा था
अब एक आदत हो तुम
और आदतें यूं ही नही जाती
पता नही वो झूठ था या सच
मगर मुझे यकीन था
यकीन के रूप में बच गई तुम मेरे अंदर
जो न घटता है न बढ़ता है
और न खत्म ही होता है।
***
उन दिनों तुम
थोड़ी जटिल थी
और मै सरल
इन दिनों मै
बेहद जटिल हूँ
और तुम सरल
साथ बदल देता है
मगर इतना
ये सोचा न था।
***
उन दिनों
तुम अचानक उखड़ जाती
बेहद तल्ख हो जाती
मेरे अंदर जो धैर्य
रहता है
उन दिनों की वजह से है
तुमनें सिखाया
अंतिम सांस तक इन्तजार करना
जो आज सबसे बड़ी ताकत है मेरी।
***
उन दिनों
अकेले तेजी से आगे बढ़ा जा सकता था
मगर तुम्हारा हाथ थामे चलना अच्छा अनुभव था
और अनुभव से बढ़कर
एक आश्वस्ति थी
किसी भी परिस्थिति में
अकेला नही हूँ मै
जीवन को विलम्बित कर
तुम्हारे साथ का चयन
एकमात्र सही निर्णय था
पिछले बीस सालों का।
***
उन दिनों
हम वास्तव में क्या चाहतें है
नही जानते थे
हमारी चाहतें वास्तविक नही
थोड़ी काल्पनिक थोड़ी चैतन्य थी
जिनसे गुजर कर
बनना था हमें एकांतसिद्ध
अपनी अपनी शर्तों पर।
***
उन दिनों
स्पर्श गढ़ रहे थे
अपने गहरे आकार
देह की ऊष्मा
सोख लेती थी अपनत्व की नमी
सबसे गहरे परिचय
शुष्क मरुस्थलों में हुए
जहां नदी और समन्दर का फर्क समाप्त हुआ
बिना किसी मरीचिका के।
***
उन दिनों
तुम उलझ गई थी
सही-गलत पाप-पुण्य के मुकदमों में
तुम्हारा बड़प्पन
उकड़ू बैठ आँखों में देखने की
इजाजत नही देता था
पहली बार
खुद के कद का अफ़सोस था मुझे
जो नही समा पा रहा था तुम्हारी हदों में।

© डॉ. अजीत

Wednesday, February 4, 2015

समिधा

सात समिधा यज्ञ की...
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तुम्हारी हथेली के
मानचित्र पर नही मिलता
एक कप चाय का पता
मिलता है बस
सही गलत के द्वन्द का
इतिहास
उपदेश की शक्ल में।
***
तुम्हारी आँखों में
रतजगों के किस्से थे
जैसे ही पढ़ना शुरू करता
मूंद लेती तुम आँखें
जितना जानता हूँ तुम्हें
वो लिखा था पलकों पर
आंसूओं की महीन लिखावट से।
***
तुम्हारी कलाई पर बंधा था
शुभता का धागा
उसी के पास बंधी थी घड़ी
दुआ और वक्त
लड़ते रहते थे आपस
जब भी मुझसे
हाथ मिलाती थी तुम।
***
तुम्हारी सांसो की खुशबू
व्याप्त थी मेरे अस्तित्व में
तुमसे मिलने के बाद
मेरे देह की गंध
छोड़ गई मुझे अकेला
तुम्हारे भरोसे
जबकि तुमनें कभी नही ली
मेरी सुध
महकता रहता हूँ रोज
तुम्हें याद करके।
***
तुम्हारी देह के ताप में
भाप बन उड़ जाते थे
हमारें संयुक्त स्वप्न
बादलों में देखे जा सकते थे
उनके प्रतिबिम्ब
वो बरसते बेमौसम
मन की छत पर
फिर बह जाते
आँखों के पतनालें से
आंसूओं की यात्रा
इतनी ही लम्बी थी।
***
कुछ महीन बातें तुमने
सबसे बाद में कही
उनके अर्थ सबसे पहले
समझ गया था
तुम्हारे प्रतिप्रश्न
मेरे भय और सन्देह
की पुष्टि भर थे
जिनके अंतराल में अकेला टंगा था
हमारा प्रेम।
***
तुम्हारे मन में
मेरी स्मृतियों का एक हिस्सा
ग्लानि की शक्ल में था
इसलिए
अपनत्व होता जाता था
निर्धन
मेरे पास तुम्हारी स्मृतियों की
स्थाई पूंजी थी
इसलिए चरम अवसाद में भी
अमीर था मैं।

© डॉ. अजीत

Tuesday, February 3, 2015

अक्स

छोड़ो !
ये अक्स की पैमाईश
गिनों साँसों की बंदिशे
जो आते-जाते
तेरे दर पे पनाह पाती है
तुझे देख बेवजह मुस्कुराती है
जिंदगी लम्हों में ठहर जाती है
इबादत का सच
सजदों से जुदा था
पलकों पर दिखता खुदा था
सिमटती जाती हो क्यों
अपनें बेवजह के ख्यालों में
आँखें मूंद कर देखो एक बार
अंधेरों के उजालों में
मेरे मन की गिरह तेरे मन से बंधी है
ये अलग बात
वो जज्बात की तह में दबी है
कभी ऐसा भी हो
तुम बिना कहें वो सब समझ जाओं
आँखों में अपने
मेरे यकीं का काजल लगाओं
सांसो की लय पर छेड़ो
रूह का तराना
बिखरे तबस्सुम को
एक शाम फिर से सजाना
जिस्मों के पते पर भेजो
वो सब खत पुराने
कुछ करवटों के हिसाब
कुछ बेरुखी के अफसानें
मुन्तजिर रहूंगा
उस दिन तक
जब तुम्हें
यकीं आएगा
किसी की जिंदगी में बेवजह होने का
हर बात की कोई वाजिब वजह हो
यह जरूरी नही
कुछ आवारा ख्याल होते है
बेवजह
जिनकी यादों में कटती है
उम्र तमाम
फिलहाल
तुम इतनी ही जरूरी हो
मेरे वजूद में
जितना गैर जरूरी हूँ
तुम्हारी जिंदगी में मै।
© डॉ. अजीत