Thursday, February 12, 2015

पाठशाला

अनुराग आसक्ति या
प्रेम में
सतत गुणवत्ता को बनाए रखने के
समस्त औपचारिक दबाव मुझ पर थे
तुम चुन सकती थी
अपनी सुविधा से
मैत्री और प्रेम की कर्क रेखा
वक्त के नाजुक टुकड़े से
खेलती तुम
आसानी से आ जा सकती थी
इस पार या उस पार
सब कुछ इतना अनिश्चित था
तय नही कर पा रहा था
तुमसें प्रेम करूँ
या तुम्हारा विश्लेषण
अस्त व्यस्त जिंदगी के हाशिए पर
तुम्हारे हस्ताक्षर पढ़ता
और उसे अंतिम वसीयत समझ लेता
फिर अचानक तुम
ऐसी मद्धम चोट करती
कौतुहल की शक्ल में
मुझे खुद पर सन्देह होने लगता
एक बेहद गैरसांसारिक रिश्तें में
बहुत कुछ मायावी भी था
हमारी बातों में दर्शन के सूक्त
मनोविज्ञान की सच्चाई
और देह का भूगोल शामिल था
परन्तु किसी उपग्रह की तरह
मेरी परिधि में तुम्हारे
चक्कर काटने की कक्षा निर्धारित नही थी
तुम आ जाती कभी बेहद नजदीक
तो चली जाती कभी बेहद दूर
हमारे मन संकेत की लिपि को
पढ़ने में थे बेहद असमर्थ
हर बार बहुत कुछ कहे गए के बीच बचता रहा
बहुत कुछ अनकहा
दरअसल
हमारे बीच जो भी अमूर्त था
उसको समझनें के लिए
समय से ज्यादा खुद की जरूरत थी
मैं खुद के शत प्रतिशत होने के प्रमाण दे सकता था
तुम्हारे विषय में कुछ कहना मुश्किल था मेरे लिए
क्योंकि
तुम्हारे पास एक ऐसा अधूरा पैमाना था
जो रोज मेरा कद घटा-बढ़ा देता था
इसलिए मेरी नाप की हर चीज
छोटी बड़ी होती रही
प्रेम भी उनमें से एक चीज़ थी
यह तय है एक दिन तुम शायद
समझ जाओगी सब ठीक ठीक
नही होंगे पूर्वाग्रह के बादल
संशय की बारिश और
अपराधबोध के पतनालें
मगर तब तक
बचा रहूंगा मै इसी शक्ल में
यह बिलकुल तय नही है
प्रेम आसक्ति या अनुराग का यह
सबसे त्रासद पक्ष है
जो जान पाया
तुम्हारी मैत्री की पाठशाला में।
© डॉ. अजीत





No comments: