Thursday, February 26, 2015

देर सबेर

अभी तुमसे जुदा हुए
एक हफ्ता भी नही हुआ था
तमाम बेरुखी के तुम्हारे ब्रह्म वाक्य
हवा में उड़ गए
जी इतना मतलबी हुआ
तुम्हारा लानत  में भी
मुहब्बत तलाशने लगा
ईगो को भरी सर्दी में गलना
देख रहा था
और कोई अफ़सोस नही था
बिछड़ते वक्त जितनी ठसक से
कहा था अलविदा
उतनी ही कसक से
तुमसे बात करने का
बहाना तलाश रहा था मन
बड़ी शिद्दत से याद आने लगे थे
तुम्हारे स्पर्श
हफ्ते भर में मेरे आत्मविश्वास और
दार्शनिकता ने हाथ खड़े कर दिए
और मै ढीठता से
तुम्हारे दर पर खड़ा था
जैसे चाय की पत्ती मांगने आया हो पड़ौसी
अच्छा हुआ तुमने
नही खोला दरवाज़ा
मुझे यूं देखकर
रही सही मुहब्बत भी खत्म हो जाती
इन्तजार की नदी किनारे
चाय पीते अभी यही सोच रहा हूँ
तुम कभी मिली तो
बात क्या करूँगा
मेरा ऐसा सोचना गलत नही है
देर से हुई मुलाक़ात में
विषय बोझिल हो जाते है
मसलन तुम यही पूछ बैठो
कैसे हो तुम !
और मेरे पास इसका कोई
सच्चा जवाब न हो।

© डॉ. अजीत



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