Tuesday, September 29, 2015

हमदर्द

मेरे हमदर्द होने का वो यूं पता देते थे
दर्द जहां था बस वहीं से दबा देते थे

जमानतें मांगता था वो दुनिया भर की
आदतन हम अपना शेर सुना देते थे

तड़फने का एक मंसब इतना हसीं था
रोते हुए भी बारहा हम मुस्कुरा देते थे

बिछड़ कर उनसे हुआ ये मालूम हमें
शिकारी भी कभी परिंदे उड़ा देते थे

रात का सफर एक मुसलसल किस्सा था
रोज़ सुबह ख़्वाबों की ख़ाक उड़ा देते थे

© डॉ.अजित

Sunday, September 27, 2015

सम्भालना मुझे...

संभालना मुझे उस नाजुक दौर में
जब भूल जाऊं मैं
धरती और आसमान का फर्क
बातें करूँ बहकी बहकी
हो सकता हूँ मैं बेहद सतही भी
जब कभी अनायास वाणी से
हिंसा पर उतर आऊं
होता जाऊं क्रूर और कड़वा
संभाल लेना मुझे
उस नाजुक दौर में
जब तुम्हें खोने के मेरे पास
हजार बहाने हो
और तुम्हें सम्भाल कर रखने का
कौशल हो गया हो समाप्त
अपनी तमाम कमजोरियों के बावजूद
मुझे आश्वस्ति है
तुम सम्भाल लोगी मुझे
उस नाजुक दौर में
ठीक अपनी तरह ।

© डॉ. अजित

प्रतिक्षा

तुम्हारी प्रतिक्षा में
मैंने मृत्यु स्थगित कर रखी है
शब्दों को अर्थ के घर
सुला आया हूँ
घर का सबसे उपेक्षित कोना
साफ किया है तुम्हारे लिए
नही चाहता जब तुम आओ
हवा को भी इसी खबर लगे
तुम्हारी प्रतिक्षा में
प्रार्थना को बांध दिया है
अनुराग की दहलीज़ पर
और खुद खड़ा हूँ
धरती से कुछ दशमलव ऊपर
तुम्हारी प्रतिक्षा में
व्याकुल या आतुर नही हूँ
बस मैं ठहर गया हूँ
समय के एक अधूरे समकोण पर
जब तुम आओगी
उस क्षण की कल्पना में
धकेल रहा हूँ अवसाद को सदियों पीछे
देख रहा हूँ एक युग आगे
भटक रहा हूँ आवारा दर ब दर
मेरे पास आश्वस्ति की बांसुरी है
जिस पर बजा रहा हूँ एक उदास धुन
यह सोचते हुए
एक बार रास्ता भूल भी गई तो भी
इस धुन के सहारे मुझे तक पहुँच जाओगी तुम
तुम्हारी प्रतिक्षा में
खुद को प्रतिक्षारत रख
मैं समय को साध रहा हूँ
ताकि तुमसे ठीक वैसा ही मिलूँ
जैसा कभी मिला था पहली बार।

© डॉ. अजित

Wednesday, September 23, 2015

नियति का राजपत्र

उन दिनों जब तुम मेरे लिए
खुद से खूबसूरत और मेरी हमउम्र
प्रेमिका तलाश रही थी
तुम्हें व्यस्त देख
मैं निकल आया था बहुत दूर
तुम्हारे उत्साह में कंकर मार
मन की तरल सतह पर
वलय नही बनाना चाहता था
इसलिए मैंने स्मृति में मार्ग को नही रखा
मैंने रास्ते में देखे कुछ बेजान पौधे
धूल के कुछ छोटे पहाड़
और एक आधी अधूरी पगडंडी
उन दिनों
तुम्हारे सुझाए विकल्पों पर
मैं केवल मुस्कुरा सकता था
मगर तुम मुझे प्रेम में
हंसते हुए देखने की जिद में थी
इसलिए भी मैं निकल आया था
चुपचाप
सम्भव है तुम्हें लगा हो यह पलायन
या फिर मेरी पुरुषोचित्त कायरता
अधूरी पगडंडी पर चलता हुआ
आ गया हूँ उस दिशा में
जहां से मेरी ध्वनि समाप्त होती है अब
तुम्हारे विकल्पों को अनाथ छोड़ने पर
मैं थोड़ा सा शर्मिंदा भी हूँ
दरअसल
तुम और तुम्हारे विकल्प के मध्य
चुनने की सुविधा तुमनें दी नही थी
और मैं खुद समय का एक विकल्प था
मेरा निकलना तय था
क्योंकि ठहरने का एक अर्थ
तुम्हें खोना था
नियति के राजपत्र पर
यह बात प्रकाशित की थी
मैंने,तुमनें और समय ने
एक साथ मिलकर
किसी षड्यंत्र की तरह।

© डॉ. अजित


Tuesday, September 22, 2015

उदास गीत

कुछ लोग मुझसे छूट रहें है
कुछ लोगो से मैं छूट रहा हूँ
ऐसा नही हमारी पकड़ ढ़ीली है
दरअसल
हमारे हथेलियों में सन्देह का पसीना है
जिसकी नमी से स्पर्श खिसक रहें इंच भर
धरती के गुरुत्वाकर्षण के उलट
बदल रहें है हमारे केंद्र
एक दिन वो भी आएगा
जब सूरज निकलेगा एकदम अकेला
योजनाओं का साक्षी नही बनना पड़ेगा उसे
चांदनी के पास नही होगा एक चुस्त तलबगार
धरती उस दिन होगी सबसे अकेली होगी
छूटे हुए लोगो के लिए
अनजानी हो जाएगी हर चीज
जिसमें मैं भी शामिल हूँ
मैं नदी झरनें और पहाड़ को
तब सुनाऊंगा एक उदास गीत
जिसके मुखड़े को सुन बारिश हो जाएगी
और भाप बन उड़ने लगेंगी यादें
स्मृतियों के जंगल से।

© डॉ. अजित

Thursday, September 17, 2015

इन्तजार की ऊब

इन्तजार की ऊब में डूबे
किसी शख्स से मिलें कभी आप
उसकी घड़ी का समय
मिनट पहले बताती है
घंटे बाद में
इन्तजार की आश्वस्ति
खुद को समझाने की बढ़िया युक्ति है
जो अटकी रहती है
किसी के होने
और न होने के बीच
इन्तजार की ऊब से पुते चेहरे
खो देते है शिल्प की ख़ूबसूरती
व्यक्त अव्यक्त के समानांतर
वो जीते है कयासों से भरी दुनिया
कभी समय के सापेक्ष
कभी समय के निरपेक्ष।

© डॉ.अजित 

Tuesday, September 8, 2015

जन्मदिन पर

लौटा रहा हूँ
तमाम यादें किस्सें और बेवकूफियां
भेज रहा हूँ
खत लिबास और रोशनी
खरीद रहा हूँ एक मुठ्ठी एकांत
सौंप रहा हूँ
तुम्हें तुम्हारे हिस्से का अवसाद
कह रहा हूँ
स्थगित धन्यवाद और विलम्बित क्षमायाचना
आरम्भ कर रहा हूँ
एक नया अंत
मध्यांतर की शक्ल में
दे रहा हूँ
अवांछित शुभकामनाएं
मांग रहा हूँ
राग में दबी पवित्र कामनाएँ  वापिस

मात्र इतना ही उल्लास हर्ष उत्सव और विज्ञापन
बचा है मेरे पास
आज खुद के जन्मदिन पर।

© डॉ. अजित

सम्वाद

एक बोझिल
बातचीत में
जितनी दफा
तुमनें लबों पर ज़बां फेरी
बस उतनी ही बार लगा

मेरी बातों में थी थोड़ी बहुत गुणवत्ता।
***
तुम्हारी अनुपस्थिति में
एक फूल खिला देखा
बस देख ही पाया
उसे छूने का साहस नही था मेरे पास
तुम्हारी अनुपस्थिति में।
***
अस्तित्व मेरे और
मेरी छाया के मध्य खड़ा था
निरुत्तर
प्रश्न एक तरफा थे
उत्तर का कोई मार्ग नही था

मैं हंस सकता था
बिना आँख के, थोड़ा प्रकाश थोड़ा अँधेरे में।
***
मैंने माफी मांगी
उसे विनम्रता में कमजोरी नजर आई
मैंने क्रोध किया
उसे इसमें भी मेरी कमजोरी नजर आई
मैं मुस्कुराया
उसे यह कूटनीतिक लगी
मैं हंसा
उसे यह नकली लगी
मैं जब चुप हो गया
उसे लगा मौन में हूँ मैं
किसी साधना के निमित्त।
© डॉ.अजित