Tuesday, November 17, 2015

प्रेम और दुःख

अज्ञेय कहते है दुःख व्यक्ति को मांझता है
केवल दुःख ही नही
प्रेम भी व्यक्ति को मांझता है
प्रेम करता हुआ व्यक्ति
देख सकता है चींटी के देह की पीड़ा
पहाड़ का बोझ
और तरल नदी का विवशता
प्रेम का दुःख
व्यक्ति को दोहरा मांझता है
वो देख सकता
अपने अंदर बैठी दो छाया एक साथ
प्रेम का सुख और प्रेम का दुःख
बाहर से भले ही अलग दिखे
अंदर से होते लगभग एक समान
दुःख की आंच में जब पिघल जाता है प्रेम
तब मन का एक हिस्सा जम जाता है
ग्लेशियर की तरह
शीत ताप के मध्य
स्मृतियों की जलवायु का सहारा ले
व्यक्ति तय करता है
अपने ग्रह पर अपनी स्थिति का ठीक ठीक आंकलन
किसी खगोलविज्ञानी की तरह
प्रेम में पड़ा व्यक्ति  एक साथ हो सकता है
विज्ञानवादी और भाग्यवादी
दुःख और सुख से इतर
प्रेम व्यक्ति का भर देता है आंतरिक निर्वात
बदल जाते है उसके गुरुत्वाकर्षण के केंद्र
प्रेम व्यक्ति को बदलता नही
बस रूपांतरित कर देता है जगह जगह से
इसलिए प्रेम का विस्मय हमेशा
व्यक्ति को बताता है
जीवन की अनिश्चिता के बारें में
दुःख की चमक भले ही स्थाई हो
मगर उस चमक को देखनें के लिए
प्रेम का दर्पण ही काम आता है
भले ही उस पर अवसाद की धूल चढ़ी हो
प्रेम किया हुआ व्यक्ति
हो पाता है एक सीमा तक ही क्रूर
खुद को समझनें और समझानें में
जितना मददगार प्रेम है
उतना कोई दूसरा मनोवैज्ञानिक परामर्शन
नही हो सकता है
प्रेम में जीता हुआ व्यक्ति हमेशा करता है
प्रेम में हारे हुए व्यक्ति का सम्मान
मनुष्य में बची रहे मनुष्यता
इसके लिए दुःख के अलावा
प्रेम एक अनिवार्य चीज है
जिसे जीना और बचाना दोनों जरूरी है।

© डॉ. अजित

1 comment:

Anonymous said...

feeling my better half ruined my better self search for mate i lost my soul