Monday, April 4, 2016

हम

सामान्य सी बातचीत में
एकदिन उसनें कहा
तुम मिलतें तो दिल बहल जाता है मेरा
मैंने कहा
क्या मैं कोई विदूषक हूँ तुम्हारे जीवन में
इस पर खीझते हुए उसने कहा
कई बार अफ़सोस होता है तुम्हारी सोच पर
बात गम्भीर होती देख हंस पड़ा मैं
मगर वो नही हंसी
तब मुझे पता चला
उसके जीवन में कम से कम
एक विदूषक नही था मैं।
***
प्रेम त्रिकोण को समझनें के लिए
कई बार मैं बन जाता अज्ञानी छात्र
और पूछता उससे
त्रिकोण के अंशो का मान
वो दिल की प्रमेय की मदद से बताती
कैसे दो लोगो का वर्गमूल हो जाता है एक समान
प्रेम की ज्यामिति को समझनें के लिए वो देती
कुछ मौलिक किस्म के सूत्र
तमाम स्पष्टता के बावजूद
हमेशा गलत होते मेरे सवाल
इस बात वो शाबासी देती हमेशा
गलत सवाल पूछने पर
या गलत जवाब निकालनें पर
नही समझ पाया आजतक।
***
अन्य स्त्रियों की तरह
उसी नही था पसन्द मेरा कमजोर पड़ना
यहां तक वो चाहती थी
न करूं जिक्र मैं सर्दी जुकाम और खांसी का भी
बीमारी की सूचना पर आजतक नही कहा उसनें
टेक केयर
वो चाहती थी मैं अकेले लडूं सारे युद्ध
सहानुभूति लूटने की आदत के सख्त खिलाफ थी वो
वो देखना चाहती थी मुझे
हमेशा स्थिर और मजबूत
उसकी वजह से बीमार पड़ना भूल गया था मैं
इसलिए
बीमारी आती रही वो सबसे ज्यादा याद।
***
ऐसा अक्सर हुआ
हम असहमत हुए
और बंद हो गई बोलचाल
सम्बन्धों का ये बेहद लौकिक संस्करण था
जिससे हम गुजरते थे साथ साथ
इस आदत का हमनें कोई सम्पादन नही किया
ना कोई स्पष्टीकरण दिया कभी
नही भेजे लम्बे चौड़े माफीनामे
एक अदद स्माइल से चल जाता था काम
हमारे मध्य ईगो नही
हमेशा दुनिया के ईगो के मध्य रहें हम।

©डॉ.अजित

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