Sunday, August 21, 2016

बात

मुझसे नफरत के दिनों में
उसने बताया मुझे
मेरी खूबियों के बारे में
मुझसे मुहब्बत के दिनों में
वो निकालती रही
मुझमें मीन मेख
मुझसे दूरियों के दिनों में
रखती गई याद
मुझसे नजदीकियों के दिनों में
वो भूलती गई मुझे
और जब एक दिन
उसनें कहा मुझे डरपोक
कसम से मुझे बुरा नही लगा
क्योंकि ठीक उस दिन
मैं भूलने को था उसे
मुझे बुरा नही लगा
यह बात उसे बेहद बुरी लगी।

© डॉ.अजित

Thursday, August 18, 2016

बाज़ दफा

वक्त के सफहो पर कुछ वरक नए खुले थे
जब इत्तेफ़ाकन हम बावस्ता यूं ही मिले थे

वफाओं की बात कभी दरम्यां चली ही नही
गोया दो वजूद कुदरत की साजिश से आपस में घुले थे

ख्वाब ख्याल या अफसाना नही था उनका मिलना
पोशीदा एक मकाम के सिरहाने दोनों के अश्क धुले थे

वो एक हसीं सफर था जब तुम साथ थे
हिज्र के किस्से खामोशियों के दर पर मुफ्त में तुले थे

अचानक एक लम्हा,
तुम नाराज़ हुई तो फिर होती ही चली गई
मनाने की कोशिशें रोती ही चली गई

उम्मीद का बोसा जब तुम्हारे लब से रुखसत हुआ
बाद उसके बेरुखी के वजीफे मुफलिसी में मिलते चले गए

बाज़ दफा ज़िंदगी हंसकर बदले लेती है।

© डॉ.अजित

Tuesday, August 16, 2016

बेवजह

इतना अस्त व्यस्त तुम्हें हमेशा देखना चाहता हूँ कि
तुम भूल जाओ कि महीना तीस का है या इक्कतीस का

सोमवार के दिन देर से उठो हड़बड़ा कर और कहो कल सन्डे के चक्कर में लेट हो गई

तुम्हें देखना चाहता हूँ अनुमान के कौशल से
पैर के पंजे से बेड की नीचे से स्लीपर निकालते हुए
अपने अनुमान को परखती तुम्हारी मिचती खुलती आँखें सृष्टि की सबसे दिव्य घटना होती है

इतना अस्त व्यस्त तुम्हें हमेशा देखना चाहता हूँ कि
तिरछी लगी रहे बिंदी और तुम्हें इसका पता भी न हो

देखना चाहता हूँ तुम्हें रसोई में लाइटर खोजते हुए जबकि वो पड़ा हो ठीक तुम्हारे सामने

देखना चाहता हूँ खुद के पर्स की खराब चैन को आहिस्ता से बंद करते हुए
ये सावधानी तुम्हारे निर्जीव प्रेम का सबसे जीवंत उदाहरण है

देखना चाहता हूँ दूध की मलाई को फूंक से हटाते हुए अचानक आँख के सामने आई लट को कान की अलगनी पर टांगते हुए
तुम्हारा कान भटके हुए मुसाफिर का अरण्य हो जैसे

इतना अस्त व्यस्त तुम्हें हमेशा देखना चाहता हूँ कि
तुम भूल जाओ मुझ से मिलकर रोज़मर्रा की जरूरी बातें
और पूछो बेहद मामूली से मासूम सवाल

मसलन

मैं जिंदगी से क्या चाहता हूँ?
बुरा नही लगता उपलब्धिशून्य जीवन?

मेरे हंसने पर देखना चाहता हूँ तुम्हारी खीझ

इतना अस्त व्यस्त तुम्हें हमेशा देखना चाहता हूँ कि
तुम भूल जाओ मैचिंग के रंग और जीने लगो अपने ही फ़्यूजन में

तुम्हें अस्त व्यस्त देखना ठीक वैसा है
जैसे धरती को बरसों बरस पीछे जाकर देखना
जब बिना नियोजन के भी
बची हुई थी खूबसूरती

तुम्हें यूं बेतरतीब देखना
उस दुनिया को देखना है
जहां अभी भी बची हुई है
लापरवाही बेहद ख़ूबसूरत अंदाज़ में

जिसके भरोसे जीया जा सकता है इस मतलबी दुनिया में
मुद्दत तक बेवजह पूरी जिंदादिली के साथ।

©डॉ.अजित



Sunday, August 14, 2016

नाराज़गी

उसका एसएमएस मिला
एकदिन
व्हाट्स एप्प और इनबॉक्स के दौर में
एसएमएस
कम बड़ा आश्चर्य नही था
एक लाइन में लिखा था उसनें
नाराज़ हूँ तुमसे
मैंने कोई जवाब नही दिया
नाराज़गी की वजह भी नही पूछी
दिन में एक बार पढ़ लेता था
उस एसएमएस को
फिर इंतजार करता था
एक दुसरे एसएमएस का
शब्दों को आगे पीछे करके
पढ़ता रहता कई बार
नाराज़गी का एसएमएस
पहला नही था
मगर ये आख़िरी होगा
इसकी उम्मीद नही थी
तब से मैं किसी से नाराज़ नही हुआ
मुद्दत से सबसे खुश हूँ मै
किसी से कोई शिकायत भी नही
ना ही कभी होगी किसी से
उसकी नाराज़गी के बाद
जान पाया यह बात
जब कोई नाराज़ होता है
वो खुद से भी खुश नही होता
हम बस उसे खुश मान लेते है
अपने हिसाब से।
©डॉ.अजित

Wednesday, August 10, 2016

पंच प्यारा

वो पांच स्त्रियों का
अकेला प्रिय पुरुष था
पांचों उसे कर रही थी
एक साथ प्रेम
बिना किसी पारस्परिक बैर भाव के

वो एक कुशल सारथी के जैसा था
सबको छोड़कर आता था
उनके सपनों की मंजिल तक

एकाधिकार वहाँ अप्रासंगिक था
उस पर पांचों का सामूहिक अधिकार था
मगर नही टकराता था
किसी का अधिकार दुसरे के अधिकार से

वो पंच प्यारा था
जिसे उम्मीद ने गढ़ा था
बिना शर्त के प्रेम के लिए

उसे देखा जा सकता था प्रायः
दिन और रात के संधिकाल पर
सूरज और चांद के खत बदलते हुए
वो अंगड़ाई की एक मुस्कान के जैसा था
जो तोड़ता था आसक्ति की तन्द्रा
उसको लेकर ठीक वैसी थी अमूर्तता
जैसी होती है विचारों की जम्हाई के वक्त

उसे महसूस किया जा सकता था
झरने के वेग की तरह
वो नदी की गहराई में अकेला पड़ा पत्थर था
जिसे समंदर तलक जाने की कोई चाह न थी

पांच तारों की युक्ति से बना वो पंच ऋषि था
जिससे रश्क होता था सप्त ऋषि तारामंडल को
पूर्वोत्तर के लोक नृत्य की तरह
वो रहता था उनका पांचो के मध्य
कभी धरती तो कभी आसमान बनकर

भले ही उन पांचो स्त्रियों की आपस में घनिष्ठता न थी
मगर वो अकेला था उन पांचो का घनिष्ठ

उसका होना सह अस्तित्व के दर्शन का मानवीयकरण होना था

किसी को नही थी आपस में कोई ईर्ष्या
उसको लेकर थी सबके मन में अपने अपने किस्म की दिव्य आश्वस्तियां

वो अकेला मुसाफिर था
जिसकी जेब में थे पांच अलग अलग पते
मगर न उसे कहीं पहुँचना था
न कहीं अटकना था

वो भटक रहा था अकेला इस ग्रह पर
पांच आत्मीय शुभकामनाओं के भरोसे।

©डॉ. अजित

वो

उससे कोई आग्रह अपेक्षा नही थी
मगर उसे उदास देख
कहीं खो जाता था
एक वक्त का भोजन
एक वक्त की चाय
और बेवजह की मुस्कान

और उसकी खिलखिलाती हंसी की व्याख्या
की जा सकती थी अपने मन मुताबिक़
एक को लगता वो खुश है
एक को लगता वो खुश दिख रहा है
एक को लगता वो दुःख छिपा रहा है
एक को लगता वो हंस रहा है बेमन से
एक को लगती उसकी हंसी दुर्लभतम्

उसकी बातों में छल नही था
उसकी आँखों में कल नही था

वो जी रहा था वर्तमान बेहद मुक्त अंदाज़ में
उसके चलतें वो भूल गई थी
अपना भूत और भविष्य
वो बह रही थी वर्तमान की दिशा में
दक्खिनी हवा बनकर

उन्होंने मिलकर रच ली थी अपनी एक समानांतर दुनिया
जहां हवा आकाश धरती नदी जंगल सब उनके अपने थे
वो घूम रहे थे बेफिक्र हर जगह


उसकी दुनिया में कोई प्रतीक्षारत में नही था
इसलिए
वो टहल सकता था निर्द्वन्द
मगर कब तक ये कोई नही जानता था

मगर वो जब तक
तब तक था एक बहुमूल्य चीज़ की तरह
जिसे खोने का भय सबको एक साथ था
जब वो खो जाएगा
नही चलेगा पता कि किसकी प्रिय वस्तु खोई है

क्योंकि
उसके बाद नही हो सकेगी
कुछ लोगो की आपस में मुलाक़ात
वो अकेला पता था
जो मिलाता था अनजान लोगो को एक साथ
बिना किसी दोस्ती के।

©डॉ. अजित

Wednesday, August 3, 2016

पिता के बाद

पिता की मृत्यु पर
जब खुल कर नही रोया मैं
और एकांत में दहाड़ कर कहा मौत से
अभी देर से आना था तुम्हें
उस वक्त मिला
पिता की आत्मा को मोक्ष।
***
पिता की अलग दुनिया थी
मेरी अलग
दोनों दुनिया में न कोई साम्य था
न कोई प्रतिस्पर्धा
जब पिता नही रहे
दोनों दुनिया के बोझ तले दब गया मैं
मेरी आवाज़ कहीं नही पहुँचती थी
मुझ तक भी नही।
***
कोई भी गलत काम करने से पहले
ईश्वर का मुझे लगता था बहुत भय
पिता की मौत के बाद
ईश्वर का भय हुआ समाप्त
और पिता का भय बढ़ गया
इस तरह ईश्वर अनुपस्थित हुआ मेरे जीवन से
पिता के जाने के बाद।
***
पिता के मर जाने पर
मनुष्य के अंदर का पिता डर जाता है
वो जीना चाहता है देर तक
अपने बच्चों के लिए
भले जीते जी वो कुछ न कर पाए
मगर
मर कर नही बढ़ाना चाहता
अपने बच्चों की मुश्किलें।

©डॉ.अजित

Tuesday, August 2, 2016

बातें

आज तुम्हारी रेसिपी से चटनी बनाई मैंने
चटनी की कोई मौलिक रेसिपी नही होती
इसलिए मेरा कोई दावा नही उस पर
चटनी एक फ़्यूजन है जिसे स्वादुनसार बनाते है सब

आज मैंने तुम्हारी बताई किताब पढ़ी
वो दरअसल मेरी बताई हुई नही थी
मुझे किसी ने बताई थी मैंने पढ़ी अच्छी लगी
तो तुम्हें बता दी
वो मेरी खोज नही तो उसे मेरी कैसे कहूँ?

आज तुम्हारे पसन्द के कलर की शर्ट पहनी मैनें
हां देखा ! मगर अब वो मेरे पसन्द का रंग नही रहा
अरे ! पसंदीदा रंग कैसे बदल सकता है
जब स्थाई प्यार बदल सकता है रंग क्यों नही बदल सकता?
अब इस पर कोई बहस नही !

आज मैंने तुम्हें याद करते हुए नदी को देखता रहा
इसे प्लीज़ मेरी याद से मत जोड़ो
तुम अंदर से खाली होंगे तभी एक जगह रुक गए
याद में आँखें बंद हो जाती है
इसलिए मृत्यु अंतिम और स्थाई याद है

आज कैलेंडर देखा तो पाया
मेरा तुम्हारा बर्थडे एक महीने में आता है
ये कैसा विचित्र संयोग है
ये ठीक वैसा ही संयोग है जैसे घनी बारिश के बाद उदासी आती है

आज दिल किया बहुत दिन हो गए साथ चाय पिए
मैंने चाय पीनी छोड़ दी है अब इसलिए दिल कुछ और पीने को याद करें तभी दिल की बात सुनने लायक होगी

अच्छा तुम्हारा क्या प्लान है
मेरा कोई प्लान नही बस यही प्लान है

आज तुम्हारे जैसी खुशबू मेरे करीब से गुजरी
वो परफ्यूम की खुशबू होगी,
मेरी खुशबू मेरे वजूद में कैद रहती है

आज ऐसा क्यों लग रहा है तुम नाराज़ हो

इसलिए लग रहा है तुम आज में बात कर रहे हो
और मैं कल में जवाब दे रही हूँ।

©डॉ.अजित