Saturday, October 29, 2016

अमावस

प्रेम में अमावस
याद रहती हमेशा
दिल और दिया
जब जलता है एक साथ

रौशनी और अँधेरे
की दोस्ती नजर आती है

प्रेम चाँद को मानता है
भरोसेमंद
उसी के सहारे
लांघ जाता है बोझिल रातें
पूर्णिमा प्रेम की दिलासा है
और अमावस प्रेम की परीक्षा

कभी जलकर तो कभी मिलकर
प्रेम को बचाते है मनुष्य
प्रेम का बचना उत्सव है

प्रेम का मिटना एक घटना है
एक ऐसी घटना
जो ढूंढती है अमावस और पूर्णिमा के मध्य
एक सुरक्षित तिथि
ताकि बांच सके
सम्भावनाओं और षड्यंत्रों का पंचांग।

© डॉ.अजित

Friday, October 14, 2016

याद

उस दिन उसे बुखार था
मैंने ब्लड टेस्ट कराने के लिए कहा
लक्षणों की गैर डाक्टरीय व्याख्या की
अनुमान से कुछ दवाएं भी बताई
उसकी कलाई पकड़कर
नब्ज़ गिनने का अभिनय किया
तापमान पूछा सेल्सियस में
फ़िक्र करते हुए कुछ खाने पीने के परहेज़ बताएं
आराम करने जैसी औपचारिक सलाह दी
बस वही एक जरूरी काम नही किया
जो करना चाहिए था
उसे गले नही लगाया मैने
तमाम काम जो मैने बताएं
वो बिन मेरे भी कर सकती थी
उसने मेरा बताया एक भी काम नही किया
हां ! उस दिन उसने साधिकार मुझे गले लगाया
जिस दिन बुखार था मुझे
ज्ञान से बढ़कर था उसका वो स्नेहिल स्पर्श
एक ही बीमारी ने बदल दी थी हमारी दुनिया
बुखार के जरिए जान पाया मैं
नजदीक होने का अर्थ
जो याद आता रहा हमेशा
हरारत से लेकर बुखार तक।

© डॉ.अजित


Tuesday, October 4, 2016

विज्ञापन

जब जब ये विज्ञापित करता हूँ मैं
ये चाहता हूँ मै
ये करना है मुझे
उसका एक अर्थ ये भी होता है
वो काम कभी नही होगा
शायद वैसा कभी नही करूँगा मैं

चाहना का प्रकाशन एक क्षणिक सुख है
नष्ट हुए वीर्य की तरह
ताप में विगलित हुए अंडे की तरह
उनकी कोई भूमिका नही होती
भ्रूण के निर्माण में
वो बाह्य की भटक कर
खो देते है अपना अर्थ
अपनी समस्त प्रकृति और संभावनाओं के साथ

क्षणिक रोमांच हत्यारा है
मनुष्य की दृढ इच्छाशक्ति का

लुत्फ़ जो लूट लिया अहा और वाह का
वो कभी करने नही देगा मुझे वो काम
ये बात ठीक से पता मुझे
इसलिए मत करना कभी यकीन
मेरी किसी उद्घोषणा का
चाहे वो किसी अभिनव लक्ष्य की हो
या फिर हो आत्महत्या की।

©डॉ.अजित

Sunday, October 2, 2016

भाष्य

न जाने कितने स्टेट्स थे
जो कभी लिखे ही नही गए

न जाने कितने उलाहने थे
जो कमेंट न बन पाए कभी

न जाने कितनी बातों के लिए
छोटा पड़ गया इनबॉक्स

न जाने कितने लम्हें शेयर करने थे
मगर तुम तब ऑनलाइन न मिले

इतनी की गई बातों के अलावा
लम्बी फेहरिस्त है न की गई बातों की
वक्त बेवक्त सारी बातें करना चाहता हूँ
जो बचती चली आ रही है मुद्दत से

अचानक से याद आ जाता है
तुम्हारा ताना
'तुमनें तो फेसबुक को दिल से लगा लिया'

फिर मैं बदल देता हूँ विषय
लिखने लगता हूँ राजनीति पर
बनता हूँ पैराडॉक्स से वन लाइनर
गाने लगता हूँ गाना
सोने लगता हूँ दिन में
खोने लगता हूँ रात में

आने वाली पीढियां जान सकेंगी
फेसबुक को हमारे जरिए
माया के उत्तर आधुनिक संस्करण के रूप में
ऋषि सूक्त की तरह काम आएँगे मेरे स्टेट्स

हमारी इन बातों को
पढ़ा जाएगा भाष्य की तरह।

©डॉ.अजित