Sunday, October 2, 2016

भाष्य

न जाने कितने स्टेट्स थे
जो कभी लिखे ही नही गए

न जाने कितने उलाहने थे
जो कमेंट न बन पाए कभी

न जाने कितनी बातों के लिए
छोटा पड़ गया इनबॉक्स

न जाने कितने लम्हें शेयर करने थे
मगर तुम तब ऑनलाइन न मिले

इतनी की गई बातों के अलावा
लम्बी फेहरिस्त है न की गई बातों की
वक्त बेवक्त सारी बातें करना चाहता हूँ
जो बचती चली आ रही है मुद्दत से

अचानक से याद आ जाता है
तुम्हारा ताना
'तुमनें तो फेसबुक को दिल से लगा लिया'

फिर मैं बदल देता हूँ विषय
लिखने लगता हूँ राजनीति पर
बनता हूँ पैराडॉक्स से वन लाइनर
गाने लगता हूँ गाना
सोने लगता हूँ दिन में
खोने लगता हूँ रात में

आने वाली पीढियां जान सकेंगी
फेसबुक को हमारे जरिए
माया के उत्तर आधुनिक संस्करण के रूप में
ऋषि सूक्त की तरह काम आएँगे मेरे स्टेट्स

हमारी इन बातों को
पढ़ा जाएगा भाष्य की तरह।

©डॉ.अजित