Monday, September 18, 2017

‘ताकि सनद रहे’

मैं अपनी स्मृतियों से चूका हुआ और
उत्तम और मध्यम के बीच अटका
एक पुरुष हूँ
मेरी पूर्व प्रेमिका ने मुझे
सदा सुखी रहने का आशीर्वाद दिया था
और वर्तमान प्रेमिका ने शाप दिया है
कि मैं सदा भीड़ से घिरा रहा हूँ

मैं अकलेपन की तलाश में हूँ
मगर मेरी तलाश में
कुछ वक्त की शिकायतें है

प्रेमिका समेत हर रिश्तें का प्रेम
नही बचा सकता फिलहाल
मुझे चोटिल होने से

मेरे घाव इतने गुम किस्म के है
उन्हें देख याद आता है शरीर सौष्ठव

मैं किसी किस्म की उपचार की उम्मीद में  नही हूँ
क्योंकि मैं जानता हूँ
उपचार बीमारी का हो सकता है
बीमार का नही

मेरी बातों की ध्वनि से नकार की गंध आती है
मगर ये मेरे जीवन चरम आशावाद है
कि मैं हर हाथ को चूमना चाहता हूँ
मगर जैसे ही बढ़ता  हूँ आगे
मेरी स्मृतियाँ दे जाती दगा
और मैं चूम लेता हूँ खुद ही का हाथ

मेरा स्वाद हो गया है बेहद एकनिष्ठ
मेरे होंठ नही पहचानते है
मेरी खुद की जीभ को

मैं जैसे ही गुनगुनाता हूँ कोई गाना
तो भूल जाता हूँ अंतरे और मुखड़े का भेद
इस पर गाना नही बदलता मैं
बस गाना चबाने लगता हूँ
इस शाब्दिक हिंसा के लिए
गीतकार मुझे नही करेगा कभी माफ़

दरअसल, ये जो ‘मैं’ –‘मैं’ लिखकर
बकरा बन रहा हूँ मैं
ये भी मेरी स्मृतियों के चूकने का परिणाम ही है

मनुष्य और बकरे के भेद में
ढह गया है मेरा बचा-खुचा पुरुषार्थ

मुझे जो भी कुछ याद है
वो सफाई का एक बुद्धिवादी संस्करण है
मैं जो कुछ भूल गया हूँ
वो मेरा निजी व्याकरण था

मेरे पास फिलहाल है
लिपि का अन्धकार
और शब्दों का  रौशनदान

जहां से मैं रोज़ देखता हूँ
अपनी स्मृतियों के उड़ते हुए कबूतर
जिन्हें आप समझ सकते है
मेरी आत्मिक शान्ति का प्रतीक

ऐसा ना भी समझे तो भी नही पड़ेगा
मुझे कोई ख़ास फर्क

मेरी स्मृतियों ने मुझे बना दिया
इतना मजबूत और कमजोर एक साथ
कि अब मैं हंस सकता हूँ
छोटे अपमान पर
मैं रो सकता हूँ किसी बड़े  सम्मान पर

स्मृतियों से चूकने का
मेरे पास यही सबसे लौकिक प्रमाण है
जिसे कविता की शक्ल में
लिख दिया है इसलिए
‘ताकि सनद रहे’

©डॉ. अजित




Sunday, September 17, 2017

उसकी बातें

कुछ तारीफें झूठी तो
कुछ सच्ची थी
जो भी थी मगर अच्छी थी

उसकी बातों में
हंसी पिंघलती थी
वो सपनों में अक्सर
आंख खोलकर चलती थी

उसकी हंसी एक पहाड़ी झरना था
जिसके शोर हो सुन-सुन कर
हर पुराना जख्म मेरा भरना था

उसके पास नही कोई शिकायत थी
उसकी खुशबू जैसे कुरान की आयत थी

वो कहती हमेशा खुश रहना
मैं पूछता कैसे
तो कहती देखना शाम को नदी का बहना

फिर यूं हुआ वो खो गई
हमारी कुछ बातें दिन में सो गई

ख्वाब हो या हकीकत
दोनों में उसका किस्सा है
जो साथ जिया था हमने कभी
वो ज़िन्दगी का बेहतरीन हिस्सा है।

©डॉ. अजित

Tuesday, September 12, 2017

असुविधा

पिता को याद करने के लिए
पुराणों का सन्दर्भ लेना होगा
ये कल्पनातीत बात थी
मेरे लिए

पिता आकाश की तरह थे
उनके रहते बादल भी
बचा लेते थे धूप से
उनकी अनुपस्थिति में
धूप ने घेरा हर तरफ से मुझे

अब एक दिन
सूरज से करता हूँ निवेदन
भेजता हूँ उनकी रुचि का भोजन
तो धूप विनम्रता से आती है पेश

तमाम वैज्ञानिक चेतना के बावजूद
करता हूँ उम्मीद उनकी तृप्ति की

जब करता हूँ याद अपनी बदतमीजियां
तो हाथ कांपने लगते है मेरे
छूट जाता है अन्न और जल भूमि पर
और हड़बड़ा कर बैठ जाता हूँ मैं
एक अंधेरे कमरे में

पिता मुझे तलाश लेते होंगे
किसी भी अंधकार में
ये सोचकर मैं
नही करता रौशनी का इंतजार

पिता का खो जाना
खुद का खो जाना जैसा है
पिता नही बस उनकी
स्मृतियां मिलती है मुझसे
और करती है बड़े अजीब सवाल

कुछ सवालों के जवाब
मैं केवल पिता को देना चाहता हूँ
उनके अलावा नही हूँ
किसी के प्रति मैं जवाबदेह

इसलिए जवाबों के बोझ तले दबा
करता रहता हूँ याद उन्हें
पूरी शिद्दत के साथ

पिता मुझे कभी मजबूर
नही देखना चाहते थे
मगर मैं उन्हें दिखा पाया अपना
मात्र यही एक रूप

मैं पिता को कमजोर नही
देखना चाहता था
मगर वो अक्सर पड़ते गए कमजोर

असल जिंदगी
बड़ी अस्त व्यस्त थी हमारी
इतनी अस्त व्यस्त कि
पिता एकदिन निकल गए बहुत दूर

और मैं अपनी ज़िंदगी की
सबसे अच्छी खबर के इंतजार में रह गया
पिता मुझे देख सकते है
ये उनके लिए बड़ी सुविधा है

मैं पिता को नही देख सकता
ये मेरे जीवन की स्थायी असुविधा है।

©डॉ. अजित
(पिता के श्राद्ध पर)

बदलना

तुम बदल गई !
ये एक बेहद लोकप्रिय कथन होगा
इसके माध्यम से नही हो पाएगी
सम्प्रेषित मेरी कोई निजी बात
मैं हर उस बात से बचना चाहता हूँ
जो पहले कई कई बार कही का चुकी

जो बन गई हो एक जुमला
और खो गई हो अपना अर्थ

तुम बदल गई
तुम बेवफा हो
मुझे सख्त नफरत है
इन दोनों कथनों से

ना तुम बदली हो
ना तुम बेवफा हो

बावजूद इसके तुम क्या हो गई हो
बताने के लिए नही है मेरे पास शब्द
मैं अंदर से इस कदर रीत गया हूँ
कि मेरी आह लौट आती है
अंदर से ही अंदर की तरफ

तुम अब चित्र में नही हो
मगर मैं एक मानचित्र पर भरोसा किए बैठा हूँ
जिसके सहारे हमे मिलना था
कभी समन्दर किनारे
कभी पहाड़ पर
तो कभी निर्जन रेगिस्तान में

मैं कोई वादे याद नही दिला रहा हूँ
मैं बस देख रहा हूँ अवाक
सीमेंट की तरह दीवार का साथ छोड़ना
सीलन की तरह दीवार का साथ निभाना

शायद
मैं ही बदल गया हूँ
तभी तो नही देख पा रहा हूँ
तुम्हें इर्द-गिर्द
यदि मैं नही बदला होता तो
तुम्हें मैं देख लेता
अनुपस्थित में भी उपस्थित

अब जब नही देख पा रहा हूँ
लगता है शायद वक्त बदल गया है
मैं आवाज़ दे रहा हूँ अतीत से
जो सीधी जाती है भविष्य की तरफ

जिसे सुन समझ आ गया है इतना
हमारे मध्य का वर्तमान बदल गया है।

©डॉ. अजित

अस्तपाल की कविताएँ-3

अस्तपाल की कविताएँ-3
__
मैं और तुम
किसी इंश्योरेंस पैनल का हिस्सा नही है
हम बीमारी के खर्चे के मामलें में
थोड़ा  खुद के भरोसे है
थोड़ा दोस्तों के
और अंत में ईश्वर के
पैसे के इंतजाम का दबाव
थोड़ा-थोड़ा सबके भरोसे है
दरअसल भरोसा ही परास्त करेगा  
बीमारी के चक्रव्यूह को
इसलिए मुद्रा से अधिक मुझे
तुम्हारे भरोसे की फ़िक्र है.
***
अस्पताल के लिए हम भरोसेमंद नही है
हर चौबीस घण्टे में वो जमा करवाते है कुछ पैसा
और बताते है मेरा अकाउंट बैलेंस
बीमारी के अलावा एक लड़ाई खुद से भी है
जरूरत और सामार्थ्य का वर्गमूल निकालता हुआ
भूल जाता हूँ मैं तुम्हारी बीमारी और तुम्हें भी
यह एक नई किस्म की बीमारी है
जो लग गई है मुझे अस्पताल आकर.
**
दुनिया में दो किस्म की घड़ियाँ है
एक जो मेरी कलाई पर बंधी है
दूसरी जो अस्पताल की दीवार पर टंगी है
दोनों का समय  अलग-अलग है
मेरी घड़ी तेज चल रही है
अस्पताल की घड़ी की अपनी एक गति है
उसे देख भटक जाता है मेरा कालबोध
अस्पताल की और मेरी घड़ी
उस वक्त बताएगी सही समय
जब नर्सिंग स्टेशन पर सम्यक भाव से
सिस्टर निकालेगी डिस्चार्ज समरी का प्रिंटआउट
जब वो समझा रही होगी मुझे
तुम्हारी दवा लेने का समय
उस वक्त मन ही मन कहूंगा मैं
अब वक्त सही हो गया है.
**
कुलीन किस्म के अस्पतालों में
खाने की चीजें महंगी है
मगर कैंटीन में भीड़ है
दुःख से जूझता आदमी
भूल जाता है महंगाई का बोध
वो किसी भी कीमत पर मुक्ति चाहता है
भूख से भी
बीमारी से भी
अस्पताल की अंदरूनी चमक
चमकती है इसी मुक्ति के भरोसे.
**
जब-जब डॉक्टर सवाल पूछता है तुमसे
मैं चाहता हूँ कि जवाब मैं दूं
तुम्हारी तकलीफ का
तुमसे अधिक अंदाज़ा है मुझे
बस इसलिए रह जाता हूँ चुप
अंदाजा केवल प्रेम में चलता है
विज्ञान में केवल चलता है सच
और तुमसे बेहतर सच बोलना
नही आता मुझे.

© डॉ. अजित